तेल विक्रेता जिहादी देश बरबादी के कगार पर, उन्हें एक हजार रुपए प्रति किलो चावल, गेंहूँ और चीनी बेंचने की तैयारी करे भारत। 

   1870 ई से लेकर अबतक के सबसे निचले स्तर पर आ गई है तेल की कीमतें। शून्य डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे की कीमत पर आज पेट्रोलियम उपलब्ध है। कीमतों में इस गिरावट का मूल कारण दुनियाँ के सभी देशों में लॉकडाउन के कारण यातायात का बंद होना है।


   यातायात बंद होने से तेल की खपत अप्रत्याशित रूप से घट गई है। तेल की माँग घटी है और आपूर्तिकर्ता देश और कम्पनियाँ पेट्रो डॉलर के लालच में लार टपकाते खड़े हैं। माँग के घटने और आपूर्ति के बढ़ने से मूल्य में गिरावट होना स्वभाविक है। इस मूल्य गिरावट से कई देशों की तेल कम्पनियाँ दिवालिया होने की स्थिति में हैं। 


विगत 150 वर्षों में तेल की कीमतें इतने कम स्तर पर कभी नहीं रही। यदि 1990 से भी इसका आकलन आरम्भ करें तो भी तेल की इतनी कम कीमत कभी नहीं रही। कोरोना से दुनियाँ त्रस्त है, यह दुखद है।


   अनेक देशों में इस महामारी का तांडव उन देशों की जनसँख्या के लिए ही खतरा बन चुका है। किंतु हर दुखद पहलू में से कुछ सुखद परिणाम भी सामने आते हैं। इसीलिए हमारे भारत में लोग प्रायः कहते हैं कि जो होता है, अच्छा ही होता है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। ईश्वर सदा कोई भी प्रेरणा या योजना अच्छे के लिए ही मानव मष्तिष्क में देते हैं। 


ध्यान रहे अमेरिका के बाजार में तेल की कीमतों का सबसे अधिक असर अरब के देशों पर ही पड़ेगा। क्योंकि अमेरिका का प्रति व्यक्ति तेल खपत अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है। उसकी पब्लिक नेसेसिटी के अतिरिक्त भी अन्य जरूरतें हैं तेल की। अरब के तेल व्यापार में अमेरिका की हिस्सेदारी बहुत बड़ी है। इसका भी प्रभाव होगा निश्चित रूप से। अमेरिका अपना हित देखेगा न कि अरब के देशों का।


इस कोरोना नाम की चाइनीज पैंडेमिक के कारण जिहादी-दंगाई देश डूबते नजर आ रहे हैं। कंपनियों के डूबने से, तेल के निर्यात के डैमेज होने से, उनकी अर्थव्यवस्था नष्ट होने के कगार पर आ चुकी है। क्योंकि उनके यहाँ तेल के अतिरिक्त कुछ और होता नहीं। जीवन की सभी आवश्यकताओं के लिए उन्हें दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़ता है। ऐसे में खाने-पीने की वस्तुओं का उत्पादन भी उनके यहाँ न होने से खाद्य सामग्री भारत जैसे देशों से मँगवाना पड़ता है। 


भारत को ध्यान रखना चाहिए कि इन देशों ने कभी भी हमसे तेल का मूल्य वसूलने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। उसके बदले जिहाद भी निर्यातित करते रहे साथ साथ बाई प्रोडक्ट के रूप में। विगत 40 वर्षों में भारत के लगभग सारे मस्जिद-मदरसे-मजार इत्यादि पेट्रो डॉलर से ही बने हैं। इसीलिये भारत को भी इनसे खाद्यान्न का मूल्य बाजार भाव के अनुरूप ही वसूलना चाहिए। 


अभी खाद्य सामग्रियों की मांग दुनियाँ में बढ़ रही है। आपूर्ति सीमित है। भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण, कृषि में सबसे अधिक कल्टीवेबल लैंड वाला देश है। यहाँ कृषि उत्पाद हर प्रकार के होते हैं, क्लाइमेट उत्तम होने के कारण। ऐसे में किसानों को भी वैश्विक आवश्यकता के अनुरूप तैयार रहना चाहिए। और सरकार को भावुक हुए बिना, इसे अर्निंग एवेन्यू के रूप में देखना चाहिए। माँग बढ़ने से खाद्यान्न का मूल्य बढ़ना स्वाभाविक है, विशेषकर अरेबियन देशों में। 


वहाँ भोजन एक महंगा सौदा बनता जा रहा है। ऐसे में भारत सरकार को उन देशों में एक हजार रुपये प्रति किलो चावल, एक हजार रुपए गेहूँ, एक हजार रुपये प्रति किलो चीनी, दो हजार रुपये प्रति किलो दाल, ढाई हजार रुपए किलो खाद्य तेल इत्यादि बेंचने की तैयारी रखना आवश्यक है। डीजल-पेट्रोल डालकर गाड़ी चलाये बिना व्यक्ति जीवित रह सकता है, किन्तु खाना खाये बिना एक दिन भी गुजारना संभव नहीं। ध्यान रहे देश में खाद्यान कीमतों पर पूर्ण नियंत्रण आवश्यक हैं और भारत में कोई भी भूखा न सोए, यह ध्यान रखना सरकार का भी काम् है और जनता का भी।